Sunday, May 6, 2012

ZINDAGI TERE SAATH



ज़िन्दगी तेरे साथ 

ज़िन्दगी तेरे साथ 
एक खूबशूरत एहसास है 
कभी पूनम कभी अमावश
कभी यादों की तन्हा रात है
खामोश दिल के हर जज्जबात 
मन के संगीत संग साज है 
मै गीत जो गाता हूँ ज़िन्दगी के 
हर गीत तेरी आवाज है 
ज़िन्दगी तेरे साथ --------

सागर की गहराई से 
असीम आसमान तक 
मौन स्नेह से मखमली जुबान तक 
नाम तेरा मेरी पहचान है 
तेरी प्यारी मुट्ठी में 
कैद मेरी ये जान है 
सुख दुःख के सुबह शाम में 
मन खोया अविराम है 
मन के तन्हा आँगन में 
तेरा ही अनुराग है 
ज़िन्दगी तेरे साथ ----------

जीवन के तन्हा सफ़र में 
मेरे राहों की आवाज है 
मौन निमंत्रण तेरा 
मेरे चलने का राज है 
जीवन नदी की लहरों में 
तू बहती हर पल नयी बयार है 
मस्त है मांझी , मस्त है कस्ती
तू जीवन की पतवार है 
ह्रदय में उमड़ा प्यार है
ज़िन्दगी तेरे साथ ----------------

तू लौट के आजा ना फिर जा 
इस मन के तन्हा आँगन में 
बिन तेरे हर सपना 
अनजाना है वीरान है 
सदियों लम्बी ख़ामोशी 
तन्हा तन्हा हर रात है 
एहसासों की जमीन पर 
अब बिखरी सपनो की लाश है 
बड़ी तिस्नगी से मन को मेरे 
बस तेरी ही तलाश है 
तेरी हर मीठी यादें 
इस जीवन को याद है 
ज़िन्दगी तेरे साथ 
बस यादों की बारात है -

Monday, March 26, 2012

असन्तोष / मैथिलीशरण गुप्त



नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
मिथ्या मेरा घोष नहीं।
वह देता जाता है ज्यों ज्यों,
लोभ वृद्धि पाता है त्यों त्यों,
नहीं वृत्ति-घातक मैं,
उस घन का चातक मैं,
जिसमें रस है रोष नहीं।
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
पाकर वैसा देने वाला—
शान्त रहे क्या लेने वाला ?
मेरा मन न रुकेगा,
उसका मन न चुकेगा,
क्या वह अक्षय-कोष नहीं ?
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।

माँगू क्यों न उसी को अब,
एक साथ पाजाऊँ सब,
पूरा दानी जब हो
कोर-कसर क्यों तब हो ?
मेरा कोई दोष नहीं।
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।

बन्धन / मैथिलीशरण गुप्त



सखे, मेरे बन्धन मत खोल,
आप बँधा हूँ आप खुलूँ मैं,
तू न बीच में बोल।

जूझूँगा, जीवन अनन्त है,
साक्षी बन कर देख,
और खींचता जा तू मेरे
जन्म-कर्म की रेख।

सिद्धि का है साधन ही मोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खोले-मूँदे प्रकृति पलक निज,
फिर एक दिन फिर रात,
परमपुरुष, तू परख हमारे
घात और प्रतिघात।
उन्हें निज दृष्टि-तुला पर तोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

कोटि कोटि तर्कों के भीतर
पैठी तैरी युक्ति,
कोटि-कोटि बन्धन-परिवेष्टित
बैठी मेरी मुक्ति,
भुक्ति से भिन्न, अकम्प, अडोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खींचे भुक्ति पटान्त पकड़ कर
मुक्ति करे संकेत,
इधर उधर आऊँ जाऊँ मैं
पर हूँ सजग सचेत।
हृदय है क्या अच्छा हिण्डोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

तेरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा
देख रहे रवि सोम,
वह अचला है करे भले ही
गर्जन तर्जन व्योम।
न भय से, लीला से हूँ लोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

ऊबेगा जब तक तरा जा
देख देख यह खेल,
हो जावेगा तब तक मेरी
भुक्ति-मुक्ति का मेल।
मिलेंगे हाँ, भूगोल-खगोल,
सखे, मेरे बन्धन मत खोल।।

रमा है सबमें राम / मैथिलीशरण गुप्त



रमा है सबमें राम,
वही सलोना श्याम।

जितने अधिक रहें अच्छा है
अपने छोटे छन्द,
अतुलित जो है उधर अलौकिक
उसका वह आनन्द
लूट लो, न लो विराम;
रमा है सबमें राम।

अपनी स्वर-विभिन्नता का है
क्या ही रम्य रहस्य;
बढ़े राग-रञ्जकता उसकी
पाकर सामञ्जस्य।
गूँजने दो भवधान,
रमा है सबमें राम।

बढ़े विचित्र वर्ण वे अपने 
गढ़ें स्वतन्त्र चरित्र;
बने एक उन सबसे उसकी
सुन्दरता का चित्र।
रहे जो लोक ललाम,
रमा है सबमें राम।

अयुत दलों से युक्त क्यों न हों
निज मानस के फूल;
उन्हें बिखरना वहाँ जहाँ है
उस प्रिय की पद-धूल।
मिले बहुविधि विश्राम,
रमा है सबमें राम।
अपनी अगणित धाराओं के
अगणित हों विस्तार;
उसके सागर का भी तो है
बढ़ो बस आठों याम,
रमा है सबमें राम।

हुआ एक होकर अनेक वह
हम अनेक से एक,
वह हम बना और हम वह यों
अहा ! अपूर्व विवेक।
भेद का रहे न नाम,
रमा है सबमें राम।

बाल-बोध / मैथिलीशरण गुप्त




वह बाल बोध था मेरा 
निराकार निर्लेप भाव में
भान हुआ जब तेरा।
तेरी मधुर मूर्ति, मृदु ममता,
रहती नहीं कहीं निज समता,
करुण कटाक्षों की वह क्षमता,
फिर जिधर भव फेरा;
अरे सूक्ष्म, तुझमें विराट ने
डाल दिया है डेरा।
वह बाल-बोध था मेरा ।।

पहले एक अजन्मा जाना,
फिर बहु रूपों में पहचाना,
वे अवतार चरित नव नाना,
चित्त हुआ चिर चेरा;
निर्गुण, तू तो निखिल गुणों का
निकला वास - बसेरा।
वह बाल-बोध था मेरा।

डरता था मैं तुझसे स्वामी,
किन्तु सखा था तू सहगामी,
मैं भी हूँ अब क्रीड़ा-कामी,
मिटने लगा अँधेरा;
दूर समझता था मैं तुझको
तू समीप हँस-हेरा।
वह बाल-बोध था मेरा।

अब भी एक प्रश्न था--कोऽहं ?
कहूँ कहूँ जब तक दासोऽहं
तन्मयता बोल उठी सोऽहं !
बस हो गया सवेरा;
दिनमणि के ऊपर उसकी ही
किरणों का है घेरा
वह बाल-बोध था मेरा।।

निर्बल का बल / मैथिलीशरण गुप्त


निर्बल का बल राम है।
हृदय ! भय का क्या काम है।।

राम वही कि पतित-पावन जो
परम दया का धाम है,
इस भव – सागर से उद्धारक
तारक जिसका नाम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।

तन-बल, मन-बल और किसी को
धन-बल से विश्राम है,
हमें जानकी – जीवन का बल
निशिदिन आठों याम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।

किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त


हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है