Sunday, April 10, 2011

Hai Andheri Raat Par Deepak Jalana Kab Mana Hai


है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिस में वितानों को ताना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रूचि से संवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटा कर इंट, पत्थर, कंकडों, को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है,
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

बादलों के अश्रू से धोया गया नभनील नीलम,
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम उषा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा,
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिला कर हाथ की दोनों हथेली,
एक निर्मल स्त्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है,
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

क्या घडी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आयी,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती,
थी हंसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गयी उल्लास के आधार, माना,
पर अधिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

हाय वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हों दुसरे में जो निरंतर,
भर दिया अम्बर अवनि को मत्तता के गीत गा गा,
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है,
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

हाय वो साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आये,
पास क्या आये, ह्रदय के बीच ही गोया समाये,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिला कर,
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गए,
वे गए तो सोच कर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है,
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

क्या हवाएं थी कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरे शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता जोर किसका,
किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है,
है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.


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